Monday, December 3, 2012

सपनों का वो बाग़...

आती है तेरी याद,
ये आंसू साथ चले आते हैं,
क्यूँ रोक नहीं लिया तुझे जाने से,
क्यूँ मना नहीं पाया तुझे रूठने पे,
कितने सवाल मन में उठते हैं, बुझते हैं,
क्या अब तुम इतनी दूर हो गयी कि,
पढ़ नहीं सकता मैं मन को तुम्हारे,
और आँखों में भी नही देख सकता खुद को,
हो गया हूँ या फिर स्वार्थी मैं,
बिन मेरे भी तुम खुश हो सकती हैं,
सीधी सी बात दिल मान क्यूँ नहीं लेता,
डर लगता है, कहीं तू उदास हुई मुझे लेकर,
और मैं न हुआ करीब तेरे उस  वक़्त तो,
तो? तो क्या हुआ
वैसे भी कौन से सारे वादे निभाए ही हैं मैंने,
प्रिये बस एक ही बात है इन सब के पीछे,
कितने ही तूफ़ान आये दिल में,
पर अपने सपनों का वो बाग़,
आज भी बचा है, ज्यों का त्यों,
तेरी राह देखता,
फूल कहते हैं उस बाग़ के,
तुम आओगी तब ही वो खिलेंगे,
तुम आओगी तो ही बसंत होगा,
तब तक हम पतझड़ में जियेंगे,
तुम आओगी न? अपने बागीचे के लिए ?
-अनुराग

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