Wednesday, November 16, 2011

कुछ यूँ ही...

कुछ ऐसे रास्तों से गुज़रे हैं सपने मेरे,
कि अब सपने देखने से भी डर लगता है !

जी यहाँ लगता नहीं, जा वहां सकता नहीं,
क्यूँ इतना दूर मुझे अपना ही घर लगता है !

सिक्कों और कागजों की भूख में ऐसे पड़े हैं,
कि अब 'कर' पर कई और 'कर' लगता है !
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
खुद कि तो सुध भी नहीं है जिसे,
ज़माने भर कि वो खबर रखता है !

मेरी नादानियों कि यही सजा है,
अपने से दूर मुझे शहर रखता है !

कोई परेशां है बढ़ते वजन से तो,
कोई 'जीरो' साइज़ कमर रखता है !

No comments:

Post a Comment