सागर किनारे खड़ा मैं सोचता रहता हूँ, कभी खुद को देखता हूँ कभी उसे देखता रहता हूँ!
कितने मिलते जुलते हैं न दोनों, एक ही जैसे से लगते हैं!
दूर दूर तक कितना वीराना है, ये सागर भी और मेरा जीवन भी...
कहीं कहीं मछुआरे दिखते हैं, जैसे मन में उम्मीद के फूल खिलते हैं!
इसे बादल न ढक रखा है, और मुझे लोगों की खुशियों ने..
जैसे इसपे बदल बरसता है, वैसे मुझपे लोगों का प्यार !
इसने भी बहुत से राज छुपा रखे हैं, कुछ बातों को हम भी दिल में दबा रखे हैं,
इसमें भी अपार शक्ति है, मुझमें भी बहुत दम है, फिर भी हम दोनों ही शांत है!
इसे भी अपनी सीमा का आभास है, मुझे भी अपनी मर्यादा का एहसास है!
हाँ कभी इसमें भी तूफ़ान आते हैं, मैं भी तो कई बार फूट पड़ता हूँ न!
लहरें इसमें उठती गिरती रहती हैं, मुझे में भी विचार उठते गिरते रहते हैं,
दुनिया भर की गंदगी है इसमें भी, मुझमे भी बुराईयाँ कम तो नहीं हैं,
खजाने भी भर रखें हैं इसने, मुझमे भी तो कुछ बात है!
सूरज की आग से तपता है ये, दुःख में जलता हूँ कभी मैं भी,
चाँदनी से शीतल होता है, आंसू मेरे भी ठंडा रखते हैं मुझे,
फिर भी उन्मुक्त जीता है ये, मैं भी तो मदमस्त रहता हूँ...
No comments:
Post a Comment